शामली: यह सभी जानते हैं कि व्यापारी और उद्योगपति कभी भी घाटे का सौदा नही करते। सीधे तौर पर कहा जाए, तो व्यापार का यहीं एक प्रमुख सिद्धांत होता है, लेकिन हमारे देश में ऐसा होता नजर आ रहा है। सरकार सरकारी कंपनियों के घाटे में जाने का राग अलाप रही है, जबकि व्यापार सिद्धांत के उलट उद्योगपति भी सरकारी कंपनियों को खरीदने के लिए बेकरार नजर आ रहे हैं। ऐसे हालात सभी को चौका सकते हैं, लेकिन इस घाटे के सौदे के पीछे की सच्चाई आज हम शामली दर्पण के माध्यम से आपको बताने वाले हैं।
भारत का राजकोषीय घाटा 6.45 लाख करोड़ रुपए का है। इसका मतलब खर्चा बहुत ज्यादा और कमाई कम। खर्च और कमाई में 6.45 लाख करोड़ का अंतर, तो इससे निपटने के लिए सरकार अपनी कंपनियों का निजीकरण और विनिवेश करके पैसा जुटाती है, जैसा की फिलहाल देश में हो रहा है। देश की मोदी सरकार की कैबिनेट ने 5 कंपनियों के विनिवेश को मंजूरी दे दी है। केंद्र सरकार को 46 कंपनियों की एक लिस्ट दी गई है और कैबिनेट ने इनमें 24 के विनिवेश को मंजूरी दे दी है। अब सवाल है कि उद्योगपति ऐसी कंपनियों को क्यों खरीदते हैं, क्योंकि वें जानते हैं कि कर्मचारियों द्वारा मनमानी की वजह से सरकारी सेक्टर का बुरा हाल है।
यूं फेल हुआ पुराना तरीका...
आर्थिक और व्यवसाय जगत के एक बड़े वर्ग का मानना है कि पिछले तीसेक सालों में जिस तरह से सरकारी कंपनियों को बेचा गया है वो विनिवेश था ही नहीं, बल्कि एक सरकारी कंपनी के शेयर्स दूसरी सरकारी कंपनी ने खरीदे हैं। इससे सरकार का बजट घाटा तो कम हो जाता है लेकिन न तो इससे कंपनी के शेयर होल्डिंग में बहुत फर्क पड़ता है, न ही कंपनी के काम-काज के तरीके बदलकर बेहतर होते हैं, लेकिन विनिवेश की ये प्रक्रिया भी अर्थव्यवस्था की तरह धीमी चल रही है। मोदी सरकार का विनिवेश का इस साल का टारगेट सिर्फ 16 प्रतिशत पूरा हो पाया है। टारगेट के 1.05 लाख करोड़ में से करीब 17,365 करोड़ रुपए जुटाए जा चुके हैं।
काम ही नही, तो मुनाफा कैसे?
निजीकरण और विनिवेश को अक्सर एक साथ इस्तेमाल किया जाता है लेकिन निजीकरण इससे अलग है। इसमें सरकार अपनी कंपनी में 51 फीसदी या उससे ज्यादा हिस्सा किसी कंपनी को बेचती है जिसके कारण कंपनी का मैनेजमेंट सरकार से हटकर खरीदार के पास चला जाता है। निजीकरण और विनिवेश एक ऐसे माहौल में हो रहा है जब देश में बेरोजगारी एक बड़े संकट के रूप में मौजूद है। देश में पूँजी की सख्त कमी है। घरेलू कंपनियों के पास पूँजी नहीं है। इनमें से अधिकतर कर्जदार भी हैं। बैंकों की हालत भी ढीली है। विनिवेश के पक्ष में तर्क ये है कि सरकारी कंपनियों में कामकाज का तरीके प्रोफेशनल नहीं रह गया है। यही घाटे की वजह है।
क्या होंगे परिणाम, जाएंगी नौकरियां, तो भी होगा नुकसान
विनिवेश की धीमी रफ्तार की वजह इसका विरोध भी है क्योंकि इससे नौकरियां जाने का खतरा है। आरएसएस से जुड़े भारतीय मजदूर संघ ने भी सरकारी कंपनियों को प्राइवेट कंपनियों को बेचने का विरोध किया है, क्योंकि प्राइवेट कंपनी किसी को भी नौकरी से निकाल सकती है, लेकिन नौकरी से निकालने का मतलब ये नहीं है कि कर्मचारी सड़क पर आ जाएंगे। स्टाफ को वीआरएस देना पड़ेगा, प्रोविडेंट फण्ड देना पड़ता है और उन्हें ग्रेच्युटी देनी पड़ेगी। पिछली बार एनडीए सरकार ने 1999 से 2004 के बीच भी राजकोषीय घाटा कम करने के लिए विनिवेश का तरीका अपनाया था। तब इसके लिए एक अलग मंत्रालय बनाया गया था। ये कवायद कांग्रेस सरकार की भी रही है लेकिन फिलहाल वो एनडीए सरकार के कदम की आलोचना कर रही है।