दर्पण: शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे ने अपने जीवन में तीन प्रतिज्ञाएं की थी। एक प्रतिज्ञा ये थी कि वो कभी अपनी आत्मकथा नहीं लिखेंगे। दूसरी प्रतिज्ञा ये थी कि वो कभी किसी तरह का चुनाव नहीं लड़ेंगे और तीसरी प्रतिज्ञा ये थी कि वो कभी कोई सरकारी पद नहीं हासिल करेंगे। सरकार से बाहर रहकर सरकार पर नियंत्रण रखना उनकी पहचान थी। 53 साल के इतिहास में पहली बार ठाकरे परिवार को कोई सदस्य मातोश्री से निकलकर राज्य सचिवालय की छठी मंजिल तक का सफर तय करने जा रहा है।
महाराष्ट्र की सियासत पर राज करने वाले बाल ठाकरे वक्त के साथ बदलती राजनीति को महसूस करने लगे थे। बूढ़े होते बाल ठाकेर अपनी आखों के सामने अपने तिलस्म को टूटते हुए देख रहे थे। लेकिन सत्ता का मिजाज अब बदल चुका था। सियासत की विरासत सौंपने का संकट भी उनके सामने था। बालासाहब ठाकरे के दबाव के चलते उद्धव ठाकरे 2002 में बीएमसी चुनावों के जरिए राजनीति से जुड़े और इसमें बेहतरीन प्रदर्शन के बाद पार्टी में बाला साहब ठाकरे के बाद दूसरे नंबर पर प्रभावी होते चले गए। पार्टी में कई वरिष्ठ नेताओं की अनदेखी करते हुए जब कमान उद्धव ठाकरे को सौंपने के संकेत मिले तो पार्टी से संजय निरूपम जैसे वरिष्ठ नेता ने किनारा कर लिया और कांग्रेस में चले गए। 2005 में नारायण राणे ने भी शिवसेना छोड़ दिया और एनसीपी में शामिल हो गए। बाला साहब ठाकरे के असली उत्तराधिकारी माने जा रहे उनके भतीजे राज ठाकरे के बढ़ते कद के चलते उद्धव का संघर्ष भी खासा चर्चित रहा। यह संघर्ष 2004 में तब चरम पर पहुंच गया, जब उद्धव को शिवसेना की कमान सौंप दी गई। जिसके बाद शिवसेना को सबसे बड़ा झटका लगा जब उनके भतीजे राज ठाकरे ने भी पार्टी छोड़कर अपनी नई पार्टी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना बना ली। उद्धव ठाकरे पॉलिटिक्स में आने से पहले एक लेखक और फोटोग्राफर के तौर पर पहचान रखते थे। उद्धव ठाकरे राजनीति में नहीं आना चाहते थे। 17 नवंबर 2012 उद्धव ठाकरे के हाथों में शिवसेना की बागडोर सौंपकर बाल ठाकरे दुनिया को अलविदा कह गए।
स्थितियां बदल रही थी, परिस्थितियां बदल रही थी। मराठी मानुस हो या धरतीपुत्र परिस्थितियों ने दरअसल विकास के मोड़ पर लाकर उद्धव को खड़ा कर दिया और शिवसेना कार्बेन कापी लगने लगी। बीजेपी शिवसेना ने 2014 का लोकसभा चुनाव मिलकर लड़ा और महाराष्ट्र की कुल 48 सीटों में से 41 सीटें अपने नाम कर ली। जिसमें से 23 सीटें बीजेपी ने और 18 सीटें शिवसेना के खाते में आई। लेकिन असली परीक्षा विधानसभा चुनावों में होनी थी। उद्धव ठाकरे पिता बाल ठाकरे की सीख को भूल गए कि बाल ठाकरे कहते थे कि सत्ता का हिस्सा नहीं बनना बल्कि सत्ता का रिमोट अपने हाथों में रखना है। लेकिन उद्धव ने खुद को मुख्यमंत्री का दावेदार पेश करना शुरु कर दिया। सीटों के बंटवारे को लेकर 25 साल पुराना बीजेपी शिवसेना गठबंधन टूट गया। शिवसेना ने बीजेपी पर जमकर प्रहार किए और नरेंद्र मोदी की तुलना अफजल खान तक से कर दी। लेकिन बीजेपी ने शिवसेना के खिलाफ एक शब्द नहीं बोला। चुनाव के नतीजे सामने आए तो शिवसेना के पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई। 122 सीटों पर कमल खिला था जबकि शिवसेना 63 सीटों पर सिमट कर रह गई। सवाल ये था कि बीजेपी किसके साथ मिलकर सरकार बनाई। मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस के शपथ ग्रहण के लिए बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने फोन कर समारोह में शामिल होने का निमंत्रण दिया। उद्धव आए लेकिन न उनके पीछे शिवसेना की हनक थी और न बाल ठाकरे के दौर की ठसक थी। उद्धव खचाखच भरे स्टेडियम में मायूस आंखों से तलाशते रहे वो स्टारडम जो उनके पिता के दौर में हुआ करता था। वानखड़े स्टेडियम में जो नजारा उद्धव ठाकरे ने अपनी आंखों से देखा उसने यह एहसास तो करा दिया कि अब शिवसेना को या तो गुजराती अमित शाह के इशारे पर चलना है या तो कमांडर नरेंद्र मोदी के दिखाए गए राह पर चलना है। या तो पवार की हथेली पर नाचना है या फिर इन सब से इतर शिवसेना को फिर से खड़ा करना है जो कभी सपना पांच दशक पहले बाला साहेब ने देखा था। वक्त बदला और साल 2019 में शिवसेना और बीजेपी ने साथ मिलकर लोकसभा चुनाव में साथ मिलकर परचम लहराया, लेकिन विधानसभा चुनाव में सीटों के मतभेद के बाद भी साथ लड़कर अलग हो गए, जिसके बाद तेजी से बदलते समीकरण के बाद महाराष्ट्र में आज उद्धव ठाकरे सीएम पद की शपथ ले ली है।
इस दिन को रोकने के लिए उम्र भर लड़ते रहे पवार
पवार आज भले ही उद्धव में महाराष्ट्र का नायक तलाशने की कोशिश कर रहे हो लेकिन ये बात वो भी जानते हैं कि इसी दिन को रोकने के लिए वो सारी उम्र लड़ते थे। बात केवल बाल ठाकरे की नहीं है जो उद्धव ठाकरे आज उनकी शरण में जाकर बैठ गए हो उनके साथ कभी हाथ तक मिलाना नहीं चाहते थे। शरद पवार ने तो शिवसेना से मुकाबला के लिए उस कांग्रेस से हाथ तक मिला लिया था जिसे तोड़कर एनसीपी बनाई थी। लेकिन 15 बरस की सत्ता के बाद पांच साल के वनवास ने उनके शपथ को चकनाचूर कर दिया। सरकार तो बन गई है लेकिन उद्धव भी समझ रहे हैं कि सरकार बनाना एक बात है और उसे चलाना दूसरी बात है। सवाल है कि जैसे तैसे बना तो ली लेकिन चलेगी कैसे सरकार।पवार आज भले ही उद्धव में महाराष्ट्र का नायक तलाशने की कोशिश कर रहे हो लेकिन ये बात वो भी जानते हैं कि इसी दिन को रोकने के लिए वो सारी उम्र लड़ते थे। बात केवल बाल ठाकरे की नहीं है जो उद्धव ठाकरे आज उनकी शरण में जाकर बैठ गए हो उनके साथ कभी हाथ तक मिलाना नहीं चाहते थे। शरद पवार ने तो शिवसेना से मुकाबला के लिए उस कांग्रेस से हाथ तक मिला लिया था जिसे तोड़कर एनसीपी बनाई थी। लेकिन 15 बरस की सत्ता के बाद पांच साल के वनवास ने उनके शपथ को चकनाचूर कर दिया। सरकार तो बन गई है लेकिन उद्धव भी समझ रहे हैं कि सरकार बनाना एक बात है और उसे चलाना दूसरी बात है। सवाल है कि जैसे तैसे बना तो ली लेकिन चलेगी कैसे सरकार। साभार—प्रभासाक्षी